आज इस लेख में आपको नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के जीवन का संपूर्ण जानकारी मिलेगा उन्होंने किस प्रकार अंग्रेजो के खिलाफ आन्दोलन करके भारतीय को आजादी दिलाई , लोग आज भी उनकी इस बहादुरी का खिस्सा एक दूसरे को सुनाते है,और इससे बहुत कुछ सीखने को मिलता है चलिए इसके बारे मे अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करते हैं,

 लोग इसकी पुण्य तिथि को याद करते हैं, विशेष आप यदि इस लेख को पूरी तरह से पढ़ेंगे तो आपको अच्छी तरह सब कुछ समझ में जाएगा उम्मीद करते है की इस कहानी को पढ़कर आपलोगो को बहुत पसंद आयेगा, यदि किसी भी प्रकार का कोई डाउट होगा तो आप कमेंट करके अवश्य पूछे। तो चलिए बिना देरी किए शुरू करते हैं , नेता जी सुभाष चंद्र बोस की जीवनी 

सुभाष चन्द्र बोस का जीवनी
सुभाष चन्द्र बोस के संपूर्ण जीवन का कहानी

सुभाष चंद्र बोस का जन्म 

जन्म: 23 जनवरी 1897

सुभाष चन्द्र बोस का मृत्यु

मृत्यु: 18 अगस्त 1945

सुभाष चन्द्र बोस को मिला उपलब्धि

सुभाष चन्द्र बोस ने ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा’ और ‘जय हिन्द’ जैसे प्रसिद्द नारे दिए, भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास की, 1938 और 1939 में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए, 1939 में फॉरवर्ड ब्लाक का गठन किया, अंग्रेजों को देश से निकालने के लिए ‘आजाद हिन्द फ़ौज’ की स्थापना की

सुभाष चंद्र बोस को ‘नेता जी’ भी बुलाया जाता है। वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रख्यात नेता थे। हालाँकि देश की आज़ादी में योगदान का ज्यादा श्रेय महात्मा गाँधी और नेहरु को दिया जाता है मगर सुभाष चन्द्र बोस का योगदान भी किसी से कम नहीं था।

सुभाष चन्द्र बोस का प्रारंभिक जीवन

उनका जन्म जनवरी 23 सन 1897 में उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता जानकी नाथ बोस प्रख्यात वकील थे। उनकी माता प्रभावती देवी सती और धार्मिक महिला थीं। 

प्रभावती और जानकी नाथ की 14 संतानें थीं जिसमें छह बेटियां और आठ बेटे थे। सुभाष उनमें से नवें स्थान पर थे। सुभाष बचपन से ही पढ़ने में होनहार थे। उन्होंने दसवीं की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था और स्नातक में भी वो प्रथम आए थे।

कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्तानक की डिग्री हासिल की थी। उसी दौरान सेना में भर्ती हो रही थी। उन्होंने भी सेना में भर्ती होने का प्रयास किया परंतु आंखें खराब होने के कारण उनको अयोग्य घोषित कर दिया गया।वे स्वामी विवेकानंद के अनुनायक थे। अपने परिवार की इच्छा के अनुसार वर्ष 1919 में वे भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए इंग्लैंड पढ़ने गये।

सुभाष चन्द्र बोस का बचपन

सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 187 को ओडिशा के कटक में हुआ था। ये जानकीनाथ बोस और श्री मति प्रभावती देवी के 14 संतानों में से 9वीं संतान थे।

सुभाष चन्द्र जी के पिता जानकीनाथ उस समय एक प्रसिद्ध वकील थे उनकी वकालत से कई लोग प्रभावित थे आपको बता दें कि पहले वे सरकारी वकील थे इसके बाद फिर उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी।

इसके बाद उन्होंने कटक की महापालिका में काफी लम्बे समय तक काम भी किया था और वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। उन्हें रायबहादुर का ख़िताब भी अंग्रेजों द्वारा दिया गया था।

सुभाष चन्द्र बोस को देशभक्ति अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। जानकीनाथ सरकारी अधिकारी होते हुए भी कांग्रेस के अधिवेशनों में शामिल होने जाते थे और लोकसेवा के कामों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते थे आपको बता दें कि ये खादी, स्वदेशी और राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थाओं के पक्षधऱ थे।

सुभाष चन्द्र बोस की माता प्रभावती उत्तरी कलकत्ता के परंपरावादी दत्त परिवार की बेटी थी। ये बहुत ही दृढ़ इच्छाशक्ति की स्वामिनी, समझदार और व्यवहारकुशल स्त्री थी साथ ही इतने बड़े परिवार का भरण पोषण बहुत ही कुशलता से करती थी।

सभाष चन्द्र बोस की पढ़ाई-लिखाई 

साहसी वीर सपूत सुभाष चन्द्र बोस बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में काफी होनहार थे उन्होनें अपनी प्राइमरी की पढ़ाई कटक के प्रोटेस्टैंड यूरोपियन स्कूल से पूरी की और 1909 में उन्होनें रेवेनशा कोलोजियेट स्कूल में एडमिशन ले लिया।

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस पर अपने प्रिंसिपल बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व का बहुत प्रभाव पड़ा इसके साथ ही उन्होनें स्वामी विवेकानंद जी के साहित्य का पूरा अध्ययन कर लिया था।

पढ़ाई के प्रति अपने मेहनत और लगन से सुभाष चन्द्र बोस ने मैट्रिक परीक्षा में दूसरा स्थान हासिल किया था और अपने अध्ययन से सफलता हासिल की।

आपको बता दें कि इसके बाद 1911 में सुभाष चंद्र बोस ने प्रेसीडेंसी कॉलेज में एडमिशन लिया लेकिन बाद में अध्यापकों और छात्रों के बीच भारत विरोधी टिप्पणियों को लेकर झगड़ा हो गया।

जिसके बाद सुभाष चन्द्र बोस ने छात्रों का साथ दिया और उन्हें एक साल के लिए कॉलेज से निकाल दिया गया और परीक्षा नहीं देने दी थी। उन्होंने बंगाली रेजिमेंट में भर्ती के लिए परीक्षा दी लेकिन आंखों के खराब होने की वजह से उन्हें मना कर दिया गया।

इसके बाद सुभाष चन्द्र बोस ने 1918 में, कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्कॉटिश कॉलेज से दर्शन शास्त्र में बी.ए की डिग्री प्राप्त की। फिर सुभाष चन्द्र बोस ने भारतीय सिविल सेवा परीक्षा (ICS) में शामिल होने के लिए कैम्ब्रिज के फिट्जविल्लियम कॉलेज में एडमिशन लिया।

अपने पिता जानकीनाथ की इच्छा पूरी करने के लिए, सुभाष चन्द्र बोस ने चौथे स्थान के साथ परीक्षा उत्तीर्ण की और सिविल सेवा विभाग में नौकरी हासिल की लेकिन सुभाष चंद्र बोस लंबे समय तक इस नौकरी को नहीं कर पाए क्योंकि सुभाष चन्द्र बोस के लिए ये नौकरी मानो किसी ब्रिटिश सरकार के अंदर काम करने जैसी थी इसलिए उन्होनें इस नौकरी को नैतिक रूप से स्वीकार नहीं किया था।

इसके बाद सुभाष चन्द्र बोस ने इस नौकरी को छोड़ने का फैसला लिया और वे भारत वापस आ गए। वहीं सुभाष चन्द्र बोस के अंदर बचपन से ही देश प्रेम की भावना थी इसलिए वे स्वतंत्रता संग्राम मे योगदान देने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और भारत को आजादी दिलाने के लिए उन्होनें अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

इस संग्राम में विजयी होने के लिए सुभाष चंद्र बोस ने पहला कदम समाचार पत्र ‘स्वराज’ शुरु कर उठाया इसके अलावा उन्होनें बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के लिए भी प्रचार-प्रसार का काम संभाला।

चित्तरंजन दास के मार्गदर्शन और सहयोग के साथ, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस में राष्ट्रवाद की भावना का विकास हुआ इसके बाद जल्द ही उन्होंने अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के लिए राष्ट्रपति की अध्यक्षता हासिल की और 1923 में बंगाल राज्य के लिए कांग्रेस के सचिव के रूप में काम किया।

इसके अलावा सुभाष चन्द्र बोस को ‘फॉरवर्ड’ अखबार का संपादक बना दिया गया इस अखबार को चितरंजन दास ने स्थापित किया था इसके साथ ही बोस ने कलकत्ता नगर निगम के सीईओ पद के लिए भी सफलता हासिल की।

राष्ट्रहित की भावना सुभाष चन्द्र बोस में कूट-कूट कर भरी थी इसलिए आजादी के लिए भारतीय संघर्ष में उनका राष्ट्रवादी नजरिया और योगदान अंग्रेजों के साथ अच्छा नहीं रहा इसलिए 1925 में उन्हें मांडले में जेल भेजा गया।

सुभाष चन्द्र बोस का व्यक्तिगत जीवन

फॉरवर्ड ब्लॉक के सदस्यों की अवहेलना के बाद, बोस ने 1937 में ऑस्ट्रेलिया के पशुचिकित्सक की बेटी एमिली शेंकल के साथ विवाह कर लिया। दोनों की शादी हिन्दू रीति-रिवाजों से की गई थी इसके काफी समय बाद इन दोनों से एक बेटी अनीता बोस फाफ का जन्म हुआ था।

18 अगस्त, 1945 को रूस जाते समय रास्ते में दुर्भाग्यपूर्ण उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिससे उनकी मौत हो गई। बताया जाता है कि जापानी सेना वायुसेना मित्सुबिशी की -21 बॉम्बर, जिस पर वे यात्रा कर रहे थे उस विमान में इंजन में परेशानी होने की वजह से विमान ताइवान में दुर्घटनाग्रस्त हो गया।

इस दुर्घटना में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के पूरे शरीर में घाव थे और ये पूरी तरह जल चुके थे हालांकि इलाज के लिए उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया लेकिन बच नहीं सके और इसके चार घंटे बाद वे सदा के लिए सो गए ।

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का अंतिम संस्कार किया गया था और ताइहोकू में निशी हांगानजी मंदिर में बौद्ध स्मारक सेवा आयोजित की गई थी। बाद में, टोक्यो, जापान में रेन्कोजी मंदिर में उनकी अस्थियों को दफन कर दिया गया थ। 

सुभाष चन्द्र बोस का कैरियर जीवन

भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए उन्होंने 1920 में आवेदन किया और इस परीक्षा में उनको न सिर्फ सफलता मिली बल्कि उन्होंने चैथा स्थान भी हासिल किया। वे जलियावाला बाग के नरसंहार के बहुत व्याकुल हुए और 1921 में प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दे दिया। 

भारत वापस आने के बाद नेता जी गांधीजी के संपर्क में आए और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए। गांधी जी के निर्देशानुसार उन्होंने देशबंधु चितरंजन दास के साथ काम करना शुरू किया। उन्होंने बाद में चितरंजन दास को अपना राजनैतिक गुरु बताया था।

 अपनी सूझ-बूझ और मेहनत से सुभाष बहुत जल्द ही कांग्रेस के मुख्य नेताओं में शामिल हो गए। 1928 में जब साइमन कमीशन आया तब कांग्रेस ने इसका विरोध किया और काले झंडे दिखाए। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ।

 इस अधिवेशन में अंग्रेज सरकार को ‘डोमिनियन स्टेटस’ देने के लिए एक साल का वक्त दिया गया। उस दौरान गांधी जी पूर्ण स्वराज की मांग से सहमत नहीं थे। वहीं सुभाष को और जवाहर लाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। 

1930 में उन्होंने इंडीपेंडेंस लीग का गठन किया। सन 1930 के ‘सिविल डिसओबिडेंस’ आन्दोलन के दौरान सुभाष को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। गांधीजी-इरविन पैक्ट के बाद 1931 में उनकी रिहाई हुई। सुभाष ने गाँधी-इरविन पैक्ट का विरोध किया और ‘सिविल डिसओबिडेंस’ आन्दोलन को रोकने के फैसले से भी वह खुश नहीं थे।

सुभाष को जल्द ही ‘बंगाल अधिनियम’ के अंतर्गत दोबारा जेल में डाल दिया गया। इस दौरान उनको करीब एक साल तक जेल में रहना पड़ा और बाद में बीमारी की वजह से उनको जेल से रिहाई मिली। उनको भारत से यूरोप भेज दिया गया। 

वहां उन्होंने, भारत और यूरोप के मध्य राजनैतिक और सांकृतिक संबंधों को बढ़ाने के लिए कई शहरों में केंद्र स्थापित किये। उनके भारत आने पर पाबंदी होने बावजूद वो भारत आए और परिणामतः उन्हें 1 साल के लिए जेल जाना पड़ा । 

1937 के चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी 7 राज्यों में सत्ता में आई और इसके बाद सुभाष को रिहा किया गया। इसके कुछ समय बाद सुभाष कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन (1938) में अध्यक्ष चुने गए। अपने कार्यकाल के दौरान सुभाष ने ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ का गठन किया।

 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष को दोबारा अध्यक्ष चुन लिया गया। इस बार सुभाष का मुकाबला पट्टाभि सीतारमैया से था। सीतारमैया को गांधीजी का पूर्ण समर्थन प्राप्त था फिर भी 203 मतों से सुभाष चुनाव जीत गए। इस दौरान द्वितीय विश्वयुध्द के बादल भी मडराने लगे थे ।

और सुभाष ने अंग्रेजों को 6 महीने में देश छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया। सुभाष के इस रवैय्ये का विरोध गांधीजी समेत कांग्रेस के अन्य लोगों ने भी किया जिसके कारण उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और ‘फॉरवर्ड ब्लाक’ की स्थापना की।

सुभाष ने अंग्रजों द्वारा भारत के संसाधनों का द्वितीय विश्व युद्ध में उपयोग करने का घोर विरोध किया और इसके खिलाफ जन आन्दोलन शुरू किया। उनके इस आंदोलन को जनता का जबरदस्त समर्थन मिल रहा था। इसलिए उन्हें कोलकाता में कैद कर नजरबन्द रखा गया जनवरी 1941 में सुभाष अपने घर से भागने में सफल हो गए और अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी पहुँच गए। 

‘दुश्मन का दुश्मन, दोस्त होता है’ वाली धारणा के मद्देनजर उन्होंने ब्रिटिश राज को भारत से निकालने के लिए जर्मनी और जापान से मदद की गुहार लगायी। जनवरी 1942 में उन्होंने रेडियो बर्लिन से प्रसारण करना शुरू किया जिससे भारत के लोगों में उत्साह बढ़ा। 

वर्ष 1943 में वो जर्मनी से सिंगापुर आए। पूर्वी एशिया पहुंचकर उन्होंने रास बिहारी बोस से ‘स्वतंत्रता आन्दोलन’ का कमान लिया और आजाद हिंद फौज का गठन करके युद्ध की तैय्यारी शुरू कर दी। आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना मुख्यतः जापानी सेना द्वारा अंग्रेजी फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को लेकर किया गया था।

 इसके बाद सुभाष को ‘नेताजी’ कहा जाने लगा, अब आजाद हिन्द फ़ौज भारत की ओर बढ़ने लगी और सबसे पहले अंदमान और निकोबार को आजाद किया।आजाद हिंद फौज बर्मा की सीमा पार करके 18 मार्च 1944 को भारतीय भूमि पर आ धमकी। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान और जर्मनी के हार के साथ, आजाद हिन्द फ़ौज का सपना पूरा नहीं हो सका।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए

इसके बाद बोस महात्मा गांधी जी के संपर्क में आए और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए। गांधी जी के निर्देशानुसार उन्होंने देशबंधु चितरंजन दास के साथ काम करना शुरू किया। 1928 में जब साइमन कमीशन आया तब कांग्रेस ने इसका विरोध किया। 

1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। उस दौरान गांधी जी पूर्ण स्वराज की मांग से सहमत नहीं थे, वहीं सुभाष को और जवाहर लाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। 

अन्त में यह तय किया गया कि अंग्रेज सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिये एक साल का वक्त दिया जाये। अगर एक साल में अंग्रेज सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। 

परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की इसलिये 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ और वहां तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा।

26 जनवरी 1931 का नेतृत्व

26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलायी और उन्हें घायल कर जेल भेज दिया। जब सुभाष जेल में थे।

 तब गांधी जी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को रिहा करने से साफ इंकार कर दिया। सुभाष चाहते थे कि इस विषय पर गांधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गांधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को राजी नहीं थे। 

अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अड़ी रही और भगत सिंह व उनके साथियों को फांसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर सुभाष बोस गांधी जी और कांग्रेस से नाराज हो गए। उन्हें अपने क्रांतिकारी जीवन में 11 बार जेल जाना पड़ा था।

सुभाष चन्द्र बोस का राष्ट्रीय योजना समिति

सुभाष को जल्द ही ‘बंगाल अधिनियम’ के अंतर्गत दोबारा जेल में डाल दिया गया। इस दौरान उनको करीब एक साल तक जेल में रहना पड़ा और बाद में बीमारी की वजह से उनको जेल से रिहाई मिली। उनको भारत से यूरोप भेज दिया गया। 

वहां उन्होंने, भारत और यूरोप के मध्य राजनैतिक और सांकृतिक संबंधों को बढ़ाने के लिए कई शहरों में केंद्र स्थापित किये, उनके भारत आने पर पाबंदी होने बावजूद वो भारत आए और परिणामतः उन्हें 1 साल के लिए जेल जाना पड़ा । 1937 के चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी 7 राज्यों में सत्ता में आई और इसके बाद सुभाष को रिहा किया गया।

 इसके कुछ समय बाद सुभाष कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन (1938) में अध्यक्ष चुने गए, अपने कार्यकाल के दौरान सुभाष ने ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ का गठन किया। 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष को दोबारा अध्यक्ष चुन लिया गया, इस बार सुभाष का मुकाबला पट्टाभि सीतारमैया से था।

 सीतारमैया को गांधीजी का पूर्ण समर्थन प्राप्त था फिर भी 203 मतों से सुभाष चुनाव जीत गए। लेकिन गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाष के तरीकों से सहमत नहीं हैं ,

तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। जवाहरलाल नेहरू तटस्थ बने रहे और अकेले शरदबाबू सुभाष के साथ रहे।

सुभाष चन्द्र बोस का कांग्रेस अध्यक्ष से इस्तीफा

1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार हो गये थे कि उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाकर अधिवेशन में लाना पड़ा। गांधी स्वयं भी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे और उनके साथियों ने भी सुभाष को कोई सहयोग नहीं दिया।

 अधिवेशन के बाद सुभाष ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की लेकिन गांधी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाष कुछ काम ही न कर पाये। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

सुभाष चन्द्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

3 मई 1939 को सुभाष ने कांग्रेस के अन्दर ही फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाष को कांग्रेस से ही निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतन्त्र पार्टी बन गयी।

 द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतन्त्रता संग्राम को और अधिक तीव्र करने के लिये जन जागृति शुरू की। फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओं को कैद कर लिया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाष जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे।

 सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिये सुभाष ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द कर लिया गया।

सुभाष चन्द्र बोस के द्वारा आजाद हिंद फौज’ का गठन

जनवरी 1941 में सुभाष अपने घर से भागने में सफल हो गए और अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी पहुंच गए। उन्होंने ब्रिटिश राज को भारत से निकालने के लिए जर्मनी और जापान से मदद की गुहार लगायी। जनवरी 1942 में उन्होंने रेडियो बर्लिन से प्रसारण करना शुरू किया जिससे भारत के लोगों में उत्साह बढ़ा। वर्ष 1943 में वो जर्मनी से सिंगापुर आए।

 पूर्वी एशिया पहुंचकर उन्होंने रास बिहारी बोस से ‘स्वतंत्रता आन्दोलन’ का कमान लिया और ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन किया और नारा दिया था कि तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा। इसके बाद सुभाष को ‘नेताजी’ कहा जाने लगा।

सुभाष चन्द्र बोस ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिये नेताजी ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंडमान और निकोबार द्वीप जीत लिये। 

यह द्वीप आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द के अनुशासन में रहे। नेताजी ने इन द्वीपों को ‘शहीद द्वीप’ और ‘स्वराज द्वीप’ का नया नाम दिया। दोनों फौजों ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।

सुभाषन्द्र बोस ने गांधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ कहा

6 जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गांधी को सम्बोधित करते हुए नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द और आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गांधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ कहा तभी गांधीजी ने भी उन्हें नेताजी कहा।

 सुभाष चन्द्र बोस का राजनीतिक जीवन 

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस 1927 में जेल से बाहर आ गए इसके बाद उन्होनें अपने राजनैतिक करियर एक आधार देकर विकसित किया। सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस पार्टी के महासचिव के पद को सुरक्षित कर लिया और गुलाम भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराने की लड़ाई में भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ काम करना शुरू कर दिया।

सुभाषचंद्र बोस अपने कामों से लोगों पर अपना प्रभाव छोड़ रहे थे इसलिए इसके 3 साल बाद उन्हें कलकत्ता का मेयर के रूप में चुना गया। 1930 के दशक के मध्य में, नेता जी ने बेनिटो मुसोलिनी समेत पूरे यूरोप की यात्रा की।

अपने कामों से नेता जी ने कुछ ही सालों में लोगों के बीच अपनी एक अलग छवि बना ली थी इसके साथ ही वे एक नौजवान सोच लेकर आए थे जिसके चलते वे यूथ लीडर के रूप में लोगों के प्रिय और राष्ट्रीय नेता भी बन गए।

नेता जी की विचारधारा

कांग्रेस की एक बैठक के दौरान कुछ नए और पुरानी विचारधारा के लोगों के बीच मतभेद हुआ जिनमें युवा नेता किसी भी नियम पर चलना नहीं चाहते थे जबकि वे खुद के हिसाब से चलना चाहते थे, वहीं पुराने नेता ब्रिटिश सरकार के बनाए नियम के साथ आगे बढ़ना चाहते थे।

वहीं सुभाष चन्द्र बोस और गांधी जी के विचार भी बिल्कुल अलग थे वे नेता जी महात्मा गांधी जी की अहिंसावादी विचारधारा से सहमत नहीं थे उनकी सोच नौजवानों वाली थी जो हिंसा में भी भरोसा रखते थे। दोनों की विचारधारा अलग थी लेकिन मकसद गुलाम भारत को आजाद कराने का ही था।

आपको बता दें जब नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नामांकन जीता था उस समय उनके नामांकन से महात्मा गांधी खुश नहीं थे यहां तक कि उन्होनें बोस के प्रेसीडेंसी के लिए भी विरोध किया था जबकि ये पूर्ण स्वराज प्राप्त करने के लिए ही था।

बोस ने अपना कैबिनेट बनाने के साथ-साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में मतभेदों का भी संघर्ष किया। 1939 के कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनावों में बोस ने पट्टाभी सीताराय्या (गांधीजी के चुने हुए उम्मीदवार) को भी हराया था, लेकिन लंबे समय तक उनकी प्रेसीडेंसी जारी नहीं रह सकी क्योंकि उनकी विश्वास प्रणाली कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के विपरीत थी।

जेल में सुभाष चन्द्र बोस

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस नेतृत्व से बिना सलाह लिए बिना भारत की तरफ से युद्ध करने के लिए वाइसराय लॉर्ड लिनलिथगो के फैसले के विरोध में सामूहिक नागरिक अवज्ञा की वकालत की। उनके इस फैसले की वजह से उन्हें 7 दिन की जेल की सजा काटनी पड़ी और 40 दिन तक गृह गिरफ्तारी झेलनी पड़ी थी।

गृह गिरफ्तारी के 41 वें दिन जर्मनी जाने के लिए सुभाष चन्द्र बोस मौलवी का वेष धारण कर अपने घर से निकले और इटेलियन पासपोर्ट में ऑरलैंडो मैज़ोटा नाम से अफगानिस्तान, सोवियत संघ, मॉस्को और रोम से होते हुए जर्मनी पहुंचे।

जर्मनी से सुभाष चन्द्र बोस का संबंध

एडम वॉन ट्रॉट ज़ू सोल्ज़ के मार्गदर्शन में, सुभाष चन्द्र बोस ने भारत के विशेष ब्यूरो की स्थापना की, जिसने जर्मन प्रायोजित आज़ाद हिंद रेडियो पर प्रसारण किया। सुभाषचन्द्र बोस ने इस तथ्य पर भरोसा किया कि दुश्मन का दुश्मन एक दोस्त होता है और इस तरह उन्होनें ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जर्मनी और जापान के सहयोग की मांग की।

बोस ने बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना की वहीं फ्री इंडिया लीजियन के लिए लगभग 3000 भारतीय कैदी ने साइन अप किया था।

जर्मनी का युद्ध में पतन और जर्मन सेना की आखिरी वापसी से सुभाष चन्द्र बोस ने इस बात का अंदाजा लगा लिया कि अब जर्मन सेना भारत से अंग्रेजों को बाहर निकालने में मद्द नहीं कर पाएगी।

सुभाष चन्द्र बोस के द्वारा आजाद हिंद फौज का गठन 

इसके बाद सुभाष चन्द्र बोस जुलाई 1943 में जर्मनी से सिंगापुर चले गए जहां उन्होनें भारतीय राष्ट्रीय सेना के गठन की उम्मीद फिर से जगाई आपको बता दें कि भारतीय राष्ट्रीय सेना को सबसे पहले कप्तान जनरल मोहन सिंह ने 1942 में स्थापित किया था इसके बाद राष्ट्रवादी नेता राश बिहारी बोस ने इसकी अध्यक्षता की थी।

बाद में राश बिहारी बोस ने इस संगठन की पूरी जिम्मेदारी सुभाष चन्द्र बोस को सौंप दी थी। वहीं इसके बाद INA को आजाद हिंद फौज और सुभाष चन्द्र बोस को नेता जी के नाम से जाने जाना लगा।

नेताजी ने न केवल सैनिकों को फिर से संगठित किया उन्होनें दक्षिणपूर्व एशिया में आप्रवासी भारतीयों का ध्यान भी अपनी तरफ खींचा। वहीं लोगों में फौज में भर्ती होने के अलावा, वित्तीय सहायता भी देना शुरू कर दिया।

आपको बता दें कि इसके बाद आज़ाद हिंद फौज एक अलग महिला इकाई के साथ भी उभर कर सामने आई, एशिया में इस तरह की पहला संगठन था।

आजाद हिंद फौज ने काफी विस्तार किया और इस संगठन ने अजाद हिंद सरकार के एक अस्थायी सरकार के तहत काम करना शुरू कर दिया। उनके पास अपनी डाक टिकट, मुद्रा, अदालतें और नागरिक कोड थे और नौ एक्सिस राज्यों द्वारा स्वीकृत थी।

नेता जी ने अपने भाषण से लोगों को किया प्रेरित

1944 में नेता जी सुभाष चन्द्र बोस अपने भाषण से लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया इसके साथ ही उनके इस भाषण ने उस समय काफी सुर्खियां भी बटोरी थी आपको बता दें कि नेता जी ने अपने इस प्रेरक भाषण में लोगों से कहा कि –

तुम मुझे खून दो, मै तुम्हें आजादी दूंगा

नेता जी का भाषण का लोगों पर इतना प्रभाव पड़ा कि काफी तादाद में लोग बिट्रिश शासकों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।

सेना, आजाद हिंद फौज के मुख्य कमांडर नेताजी के साथ, ब्रिटिश राज से देश को मुक्त करने के लिए भारत की तरफ बढ़ी।

रास्ते में अंडमान और निकोबार द्वीपों को स्वतंत्र किया गया इसके बाद इन दो द्वीपों का स्वराज और शहीद का नाम दिया गया। इसके साथ सेना के लिए रंगून नया आधार शिविर बन गया।

बर्मा मोर्चे पर अपनी पहली प्रतिबद्धता के साथ, सेना ने अंग्रेजों के खिलाफ प्रतिस्पर्धी लड़ाई लड़ी और आखिरकार इम्फाल, मणिपुर के मैदान पर भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराने में कामयाब रहे।

हालांकि, राष्ट्रमंडल बलों के अचानक हमले में जापानी और जर्मन सेना को आश्चर्यचकित कर लिया। रंगून बेस शिविर के पीछे हटने से सुभाष चन्द्र बोस का राजनीतिक हिन्द फौज का को प्रभावी राजनीतिक इकाई बनने के सपने को चूर-चूर कर दिया।

सुभाष चन्द्र बोस को मिला पुरस्कार और उपलब्धियां 

नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, भारत रत्न पुरस्कार से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था। हालांकि, बाद में इसे पीआईएल के बाद वापस ले लिया गया, जिसे अदालत में पुरस्कार की ‘मरणोपरांत’ प्रकृति के खिलाफ दायर किया गया था।

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की एक प्रतिमा पश्चिम बंगाल विधान सभा के सामने बनाई गई है, जबकि उनकी तस्वीर की झलक भारतीय संसद की दीवारों में भी देखने को मिलती है।

कुछ दिनों पहले ही नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को लोकप्रिय संस्कृतियों में चित्रित किया गया है। हालांकि वह कई लेखकों के विचारों के साथ धोखाधड़ी कर रहा है, जिन्होंने उन पर कई किताबें लिखी हैं, वहीं ऐसी कई फिल्में हैं।

सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु

ऐसा माना जाता है कि 18 अगस्त 1945 में एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु ताईवान में हो गयी परंतु उसका दुर्घटना का कोई साक्ष्य नहीं मिल सका। सुभाष चंद्र की मृत्यु आज भी विवाद का विषय है और भारतीय इतिहास सबसे बड़ा संशय है।

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के विचार

 तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।

याद रखिये – सबसे बड़ा अपराध, अन्याय को सहना और गलत व्यक्ति के साथ समझौता करना हैं।

यह हमारा फर्ज हैं कि हम अपनी आजादी की कीमत अपने खून से चुकाएं| हमें अपने त्याग और बलिदान से जो आजादी मिले, उसकी रक्षा करनी की ताकत हमारे अन्दर होनी चाहिए।

मेरा अनुभव हैं कि हमेशा आशा की कोई न कोई किरण आती है, जो हमें जीवन से दूर भटकने नहीं देती।

जो अपनी ताकत पर भरोसा करता हैं, वो आगे बढ़ता है और उधार की ताकत वाले घायल हो जाते हैं।

हमारा सफर कितना ही भयानक, कष्टदायी और बदतर हो सकता हैं लेकिन हमें आगे बढ़ते रहना ही हैं। सफलता का दिन दूर हो सकता हैं, लेकिन उसका आना अनिवार्य ही हैं।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक ऐसे स्वतंत्रता सैनानी थी जिन्होनें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के तहत भारत को आजादी दिलावाने के लिए अपने प्राण भी न्यौछावर कर दिए।

उनमें वो तेज था जो लोगों को उनकी तरफ आर्कषित करता था इसके साथ ही वे उस समय युवाओं में नया जोश और शक्ति का प्रसार करने में भी कामयाब हुए थे। सुभाष चन्द्र बोस का नाम इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अक्षरों में लिखा गया।

सुभाष चन्द्र बोस का सर्वश्रेष्ठ प्रेरणादायक विचार

“तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा।

आज हमारे अन्दर बस एक ही इच्छा होनी चाहिए, मरने की इच्छा ताकि भारत जी सके! एक शहीद की मौत मरने की इच्छा ताकि स्वतंत्रता का मार्ग शहीदों के खून से प्रशश्त हो सके।

“जीवन में अगर संघर्ष न रहे, किसी भी भय का सामना न करना पड़े, तब जीवन का आधा स्वाद ही समाप्त हो जाता है।”

एक सच्चे सैनिक को सैन्य और आध्यात्मिक दोनों ही प्रशिक्षण की ज़रुरत होती है।

“अपनी ताकत पर भरोसा करो, उधार की ताकत तुम्‍हारे लिए घातक है।”

“आजादी मिलती नहीं बल्कि इसे छिनना पड़ता है।

भारत में राष्ट्रवाद ने एक ऐसी शक्ति का संचार किया है जो लोगों के अन्दर सदियों से निष्क्रिय पड़ी थी।

“याद रखिये सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है।

इतिहास में कभी भी विचार -विमर्श से कोई ठोस परिवर्तन नहीं हासिल किया गया है।

“संघर्ष ने मुझे मनुष्य बनाया, मुझमे आत्मविश्वास उत्पन्न हुआ, जो पहले नहीं था।”

ये हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी स्वतंत्रता का मोल अपने खून से चुकाएं। हमें अपने बलिदान और परिश्रम से जो आज़ादी मिले, हमारे अन्दर उसकी रक्षा करने की ताकत होनी चाहिए।

“सफलता, हमेशा असफलता के स्तम्भ पर खड़ी होती हैं।”

राष्ट्रवाद मानव जाति के उच्चतम आदर्शों सत्यम, शिवम्, सुन्दरम से प्रेरित है।

“यदि आपको अस्‍थायी रूप से झुकना पड़े तब भी वीरों की भांति झुकना।”

एक सैनिक के रूप में आपको हमेशा तीन आदर्शों को संजोना और उन पर जीना होगा: सच्चाई, कर्तव्य और बलिदान। जो सिपाही हमेशा अपने देश के प्रति वफादार रहता है, जो हमेशा अपना जीवन बलिदान करने को तैयार रहतें है, वो अजेय है। अगर तुम भी अजेय बनना चाहते हो तो इन तीन आदर्शों को अपने ह्रदय में समाहित कर लो।

सुभाष चन्द्र बोस का उत्तेजित करने वाले भाषण

बारह महीने पहले पूर्वी एशिया में भारतीयों के सामने ‘संपूर्ण सैन्य संगठन’ या ‘ज्यादा बलिदान’ का कार्यक्रम पेश किया गया था। आज मैं आपको पिछले साल की हमारी उपलब्धियों का हिसाब दूंगा और आने वाले साल की हमारी मांगें आपके सामने रखूंगा। लेकिन ऐसा करने से पहले मैं आपको एक बार फिर यह एहसास कराना चाहता हूँ कि हमारे पास आजादी हासिल करने का कितना सुनहरा अवसर है।

अंग्रेज एक विश्वव्यापी संघर्ष में उलझे हुए हैं और इस संघर्ष के दौरान उन्होंने कई मोर्चो पर मात खाई है। इस तरह शत्रु के काफी कमजोर हो जाने से आजादी के लिए हमारी लड़ाई उससे बहुत आसान हो गई है, जितनी वह पाँच साल पहले थी। इस तरह का अनूठा और ईश्वर-प्राप्त अवसर सौ वर्षो में एक बार आता है।

इसीलिए अपनी मातृभूमि को ब्रिटिश गुलामी से छुड़ाने के लिए हमने इस अवसर का पूरा फायदा उठाने की कसम खाई है।

हमारे संघर्ष की सफलता के लिए मैं इतना ज्यादा आशावादी हूँ, क्योंकि मैं सिर्फ पूर्व एशिया के 30 लाख भारतीयों के प्रयासों पर निर्भर नहीं हूँ। भारत के अंदर एक विराट आंदोलन चल रहा है और हमारे लाखों देशवासी आजादी हासिल करने के लिए अधिकतम दु:ख सहने और बलिदान देने के लिए तैयार हैं।

दुर्भाग्यवश, सन् 1857 के महान् संघर्ष के बाद से हमारे देशवासी निहत्थे हैं, जबकि दुश्मन हथियारों से लदा हुआ है। आज के इस आधुनिक युग में निहत्थे लोगों के लिए हथियारों और एक आधुनिक सेना के बिना आजादी हासिल करना नामुमकिन है। ईश्वर की कृपा और उदार नियम की सहायता से पूर्वी एशिया के भारतीयों के लिए यह संभव हो गया है कि एक आधुनिक सेना के निर्माण के लिए हथियार हासिल कर सकें।

इसके अतिरिक्त, आजादी हासिल करने के प्रयासों में पूर्वी एशिया के भारतीय एकता में बंधे हुए हैं और धार्मिक और अन्य भिन्नताओं का, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत के अंदर हवा देने की कोशिश की, यहाँ पूर्वी एशिया में नामोनिशान नहीं है।

इसी की वजह से आज परिस्थितियों का ऐसा आदर्श मिलाप हमारे पास है, जो हमारे संघर्ष की सफलता के पक्ष में है – अब जरूरत सिर्फ इस बात की है कि अपनी आजादी की कीमत चुकाने के लिए भारतीय स्वयं आगे आएं। ‘संपूर्ण सैन्य संगठन’ के कार्यक्रम के अनुसार मैंने आपसे जवानों, धन और सामग्री की मांग की थी।

जहाँ तक जवानों का संबंध है, मुझे आपको बताने में खुशी हो रही है कि हमें पर्याप्त संख्या में रंगरूट मिल गए हैं। हमारे पास पूर्वी एशिया के हर कोने से रंगरूट आए हैं – चीन, जापान, इंडोचीन, फिलीपींस, जावा, बोर्नियो, सेलेबस, सुमात्रा, मलाया, थाईलैंड और बर्मा से।

आपको और अधिक उत्साह एवं ऊर्जा के साथ जवानों, धन तथा सामग्री की व्यवस्था करते रहना चाहिये, विशेष रूप से आपूर्ति और परिवहन की समस्याओं का संतोषजनक समाधान होना चाहिये। हमें मुक्त किए गए क्षेत्रों के प्रशासन और पुनर्निर्माण के लिए सभी श्रेणियों के पुरुषों और महिलाओं की जरूरत होगी।

हमें उस स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए, जिसमें शत्रु किसी विशेष क्षेत्र से पीछे हटने से पहले निर्दयता से ‘घर-फूंक नीति’ अपनाएगा तथा नागरिक आबादी को अपने शहर या गाँव खाली करने के लिए मजबूर करेगा, जैसा उन्होंने बर्मा में किया था। सबसे बड़ी समस्या युद्धभूमि में जवानों और सामग्री को पहुंचाने की है।

यदि हम ऐसा नहीं करते तो हम मोर्चो पर अपनी कामयाबी को जारी रखने की आशा नहीं कर सकते, न ही हम भारत के आंतरिक भागों तक पहुंचने में कामयाब हो सकते हैं।

आपमें से उन लोगों को, जिन्हें आजादी के बाद देश के लिए काम जारी रखना है, यह कभी नहीं भूलना चाहिये की पूर्वी एशिया – विशेष रूप से बर्मा – हमारे संघर्ष का आधार है। यदि यह आधार मजबूत नहीं है तो हमारी लड़ाकू सेनाएं कभी विजयी नहीं होंगी।

याद रखिये कि यह एक ‘संपूर्ण युद्ध है – केवल दो सेनाओं के बीच युद्ध नहीं है। इसीलिए, पिछले पूरे एक साल से मैंने पूर्व में ‘संपूर्ण सैन्य संगठन’ पर इतना जोर दिया है।

मेरे यह कहने के पीछे कारण है कि आप घरेलू मोर्चे पर और अधिक ध्यान दें, एक और भी कारण है। आने वाले महीनों में मैं और मंत्रिमंडल की युद्ध समिति के मेरे सहयोगी युद्ध के मोर्चे पर और भारत के अंदर क्रांति लाने के लिए भी – अपना सारा ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं।

इसीलिए हम इस बात को पूरी तरह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि आधार पर हमारा कार्य हमारी अनुपस्थिति में भी सुचारु रूप से और बिना किसी रूकावट के चलता रहे। साथियों एक साल पहले, जब मैंने आपके सामने कुछ मांगें रखी थीं, तब मैंने कहा था कि यदि आप मुझे ‘संपूर्ण सैन्य संगठन’ दें तो मैं आपको एक ‘एक दूसरा मोर्चा’ दूंगा।

मैंने अपना वह वचन निभाया है। हमारे अभियान का पहला चरण पूरा हो गया है। हमारी विजयी सेनाओं ने सेनाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर शत्रु को पीछे धकेल दिया है और अब वे हमारी प्रिय मातृभूमि की पवित्र धरती पर बहादुरी से लड़ रही हैं।

अब जो काम हमारे सामने हैं, उन्हें पूरा करने के लिए कमर कस लें। मैंने आपसे जवानों, धन और सामग्री की व्यवस्था करने के लिए कहा था। मुझे वे सब भरपूर मात्रा में मिल गए हैं। अब मैं आपसे कुछ और चाहता हूं। जवान, धन और सामग्री अपने आप विजय या स्वतंत्रता नहीं दिला सकते।

हमारे पास ऐसी प्रेरक शक्ति होनी चाहिये, जो हमें बहादुर व उचित कार्यो के लिए प्रेरित करें। सिर्फ इस कारण कि अब विजय हमारी पहुँच में दिखाई देती है।

आपका यह सोचना कि आप जीते-जी भारत को स्वतंत्र देख ही पाएंगे, आपके लिए एक घातक गलती होगी। यहाँ मौजूद लोगों में से किसी के मन में स्वतंत्रता के मीठे फलों का आनंद लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिये। एक लंबी लड़ाई अब भी हमारे सामने है।

आज हमारी केवल एक ही इच्छा होनी चाहिये – मरने की इच्छा, ताकि भारत जी सके, एक शहीद की मौत करने की इच्छा, जिससे स्वतंत्रता की राह शहीदों के खून बनाई जा सके।

साथियो! आज मैं आपसे एक ही चीज माँगता हूँ, सबसे ऊपर मैं आपसे अपना खून माँगता हूँ। यह खून ही उस खून का बदला लेगा, जो दुश्मन ने बहाया है। खून से ही आजादी की कीमत चुकाई जा सकती है। तुम मुझे खून दो और मैं तुम से आजादी का वादा करता हूं।

निष्कर्ष 

हमे उम्मीद है कि मेरे टीम द्वारा लिखा गया यह लेख नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के जीवनी आपको पूरी तरह समझ में आ गया होगा, इस लेख से आपको बहुत कुछ सीखने को मिला होगा, यदि आप इसे पूरी तरह पढ़ेंगे तो इसके जीवन के इंस्पेरेशन के साथ साथ आपको अपने जीवन के आगे का रास्ता दिखाई देगा।

 इसके साथ ही इन्होंने कितना संघर्ष किया आपको इसके बारे जानकारी मिल गई होगी , आशा है कि आगे के जीवन में सही निर्णय लेने के लिए सुभाष चंद्र बोस के दिखाई गई मार्ग पर अवश्य चलेंगे । इसे अधिक से अधिक सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपने दोस्तों के बीच अवश्य शेयर करेंगे। 

Post a Comment