सुदामा चरित

सुदामा और कृष्ण बाल सखा थे सुदामा अति दिन थे भिक्षा मांग कर भोजन करते थे और हरी भजन में लीन रहते थे उनकी पत्नी को अपने दरिद्रता पर बड़ा क्षोभ होता था उन्होंने दरिद्रता दूर कराने के लिए सुदामा को द्वारकाधीश श्री कृष्ण के पास जाने को विवश कर दिया।
श्री कृष्ण अपने दिन मित्र सुदामा को अपार धन देकर उस उदारता एवं मित्र भाव का परिचय दिया वह अद्वितीय है वज्र भाषा की यह कविता खड़ी बोली हिंदी के अतीत से भी हमें परिचित कराती है।






द्वारका जाहू जु द्वारका जाहु जु , आठ हु जाम यहै झक तेरे ।

जो न कहै करिए तो बढ़ो दुख, जैये कहा अपनी गति हेरो ।।
द्वार खड़े प्रभु के छारिया त हु  भूपति जान न पावत नेरे।

पांच सुपारी तै देखू बिचरके , भेट को चारी न चाहुर मेरे ।।








यह सुनीके तब ब्रामणी , गई परोसीन पास ।

पाव सेर चाऊर लिए , आई सहित हुलास ।।

सिद्धि करी गणपति सुमरी बांधी दुप्तिया खूट।

मांगत  खात  चले  तहां  , मारग  बाली बुट ।।








दीठी चका चौंधी गई देखत सुबन मई ,

एक ते सरस एक द्वारका के भौंन हैं ।

पूछे बिनु कोऊ कहु सो न करै बात ,

देवता से बैठे सब साधी साधी मौन है  ।

देखत सुदामा धाय पौर्जन गाहे पाए ,

"कृपा करी कहो विप्र कहां किन्ही गौन है ।"

धीरज अधीर के हरण पर पर के ,

बताओ बलबीर के महल यहां कौन है ।









भेंटे भरी अंक लपटाय दुख सानै को ?

नैन दोऊ जल भरी , पूछत कुसल हरी,

विप्र बोल्यों "बात मे मोहि पहिचानौ को ?

जैसी तुम करी वैसी करै को दया के सिंधु ,

ऐसी प्रीत दीनबंधु ! दिनन सो माने को ।।







कुछ भाभी हमको दियो, सो तुम काहे न देत ।

चांपी पोतरी काँख मे , रहे कहो केही हेतु ।।







वह पुलकनी , वह उठी मिलनी , वह आदर की बात ।

वह  पठवनी  गोपाल  की,  कछु न  जानी  जात ।।

घर - घर  कर ओडत फिरे, तनक दही के काज ।

कहा भयो जो अब भयो , हरी को राज - समाज ।।

हां  आवत   नाही   हूंतै,  वाही   पाठ्यो   ठेली ।

अब कहिहै समुझाय कै , बहु धन धरै सकेली ।।









टूटी सी मढ़ेया मेरी परी हुती याही ठौर, 

ताने परी दुःख काटे कहा हेम - धाम री।









जेवर जरारू तुम साजे सब अंग -अंग ,

सखी सौहे संग वह छुछी छूती छामरी ।।

तुम तो पटवर रि ! ओढ़ हो किनारी दार,

सारी जरतारी , वह  कोठे  कारी कमरी ।

मेरी वा पढ़ाइन तिहारी अनुहार ही पै,

बिपदा सताई वह पायी कहा पामरी ?
 









शीश पगा न झगा तन में, प्रभु जाने को आय बसे केहि ग्रामा

धोती फटी सिलौटी दुखती, अरु  पाई उपनाम नहीं सामा

द्वार खड़ी द्विज दुर्बल देखी ,  रहौ चकी सो वसुधा अभिरामा 

पुछत दिन दयाल  को धामू , बतावत  आपनो नाम सुदामा









 बोल्यो  द्वारपाल, सुदामा नाम पांडे सुनी 
 
झाड़े राजकाज ऐसे जी की गति जाने को।

द्वारका के नाथ हाथ जोड़ी धाय गाहे पाएं , 

 भेटे भरी  अंक लपटाय दुख साने को ।।

नेने दोऊ जल भरी पूछत कुसल हरि ,

विप्र बोल्यों बिपदा में मोहि पहिचाने को ।।

जैसी तुम करी तैसी करै को दया के सिंधु ,

ऐसी प्रीति दीनबंधु दिनन सौ भाने को ।।









ऐसे बिहाल बिबाइन सो पग , कंटक जाल लगे पुनि जोये

,
हाय ! महा दुख पायो  सखा , तुम आये ऐते न , कितै दिन खोयो 

देखी सुदामा की दिन दशा, करुणा करीके करुणानिधि रियो,

पानी परात को हाथ छुये नहीं,नैनन के जल सो पग धोयो

 







आगे चना गुरु मात दिए , ते लए तुम चाबी , हमे नही दीने,

स्याम कहयो मुस्काए सुदामा सौ , चोरी की बानी मे हौ जु प्रबीने 

गाठरी कॉख में  चअनपि रहे तुम , खोलत नाही सुधा रस भीने, 

पछिली बानी अजौ  न  तजौ तुम, तैसेई भाभी के तंदूल कीने ।








बैसोई राज समाज बनौ , गज बाजी घने, मन संभ्रम छायौ

कैधो परियों कहूं मारग भूली के, कै अब फेरी मै द्वारिका आयौ ।।

भौंन बिलोकिबे को मन लोचत , सोचत ही सब गांव मांझयो ।

पुछत पांडे फिरे सबसौ पर, झोपड़ी को कहूं खोजु न पायों।।







कै वह टूटी सी छानी हुती , कहा कंचन के सब धाम सुहाबत ।

कै पग में पनही न हुती, कहा लौ गजराज हु ठाडे महावत ।।

भूमि कठोर पै रात कटौ , कहा कोमल सेज पौ नींद न आवत ।

कै जुरते नहीं कोदे सवा , प्रभु के परपात ते दाख न भावत।।





धन्य धन्य जादुबंश - मणि , दिनान पै अनुकूल।

धन्य सुदामा सहित तीय , कहीं बरसाही सुर फूल ।।


                                            " नरोत्तमदास "

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