पीपल

 प्रकृति चित्रण छायावादी कविता की उल्लेखनीय विशेषता है । यह कविता प्रकृति के विविध रूपों से हमारा आत्मीय परिचय कराती है । प्राचीन पीपल वृक्ष है को अनेक बदलावों का साक्षी है । पीपल वृक्ष के समक्ष विभिन्न प्रकार के पेड़ , झरने , नदी, चिड़िया , ऋतुएं , दिवस चक्र सक्रिय है । यह कविता अनेक दृष्टि यों से उल्लेखनीय है ।



कनान का यह तरुवर पीपल 

युग युग से जग में अचल, अटल   

ऊपर विस्तृत नभ नील नील नीचे वसुधा मे नदी, झील 

जामुन , तमाल, इमली , करिल 

जल से उपर उठता मृणाल फुगनी पर खिलता कमल लाल 

तीर तीर करते क्रीड़ा मराल 

ऊंचे टीले से वसुधा पर झरती है निर्झ रिनी झर झर 

हो जाती बूंद बूंद झर कर 



निर्झर के पास खड़ा पीपल सुनता रहता कल कल छलछल 

पल्लव हिलते ढल ढल - ढल ढल 

पीपल के पत्ते गोल गोल 

कुछ कहते रहते डोल - डोल 

जब जब आता पूछी तरु पर जब जब आता पंछी उड़कर 

जब जब खाता फल चुन चुनकर 

पढ़ती जब पवार की फुहार बजते तब पंछी के सितार 

बहने लगती शीतल बयार 



तब तब कोमल पल्लव हील डुल गाते सरसर , मरमर मंजुल 

लख - लख , सुन - सुन बिहबल बुलबुल 

बुलबुल गाती रहती चह- चह सरिता गाती रहती बह - बह 



पत्ते हिलते रहते रह - रह 

जितने भी है इसमें कोटर 

सब पंछी , गिलहरियों के घर 

संध्या को अब दिन जाता ढल सूरज चलते है अस्तांचल 

कर मे समेट किरने उजब्बल 



हो जाता है सुनसान लोक चल पढ़ते घर को चील , कोक 

अंधियाली संध्या को बिलोक भर जाता है कोटर कोटर बस जाते है पत्ते के घर 

घर घर मे आती नींद उतर



निंद्रा ही मे होता प्रभात , कट जाती है इस तरह रात 

फिर वही बात रे वही बात 

इस वसुधा का यह वन्य प्रांत 

है , दूर , अलग , एकांत, शांत 


है खड़े जहा पर शाल , बांस , चौपाया चरते नरम घास 

निर्झर , सरिता के आस पास 

रजनी भर रो रोकर चकोर कर देता है रो रोज भोर 

नाचा करते है जहा मोर 



है वहा बल्लारि का बंधन क्या , वह तो आलिंगन 

आलिंगन भी चिर - आलिंगन 

बुझती पथिको की जहा प्यास निंद्रा लग जाती अनायास 

है वही सदा इसका निवास 

          " गोपाल सिंह नेपाली "





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