कबीर भक्तिकाल के अप्रतिम भक्त कवि थे । उन्होंने अपनी रचना के माध्यम से भक्ति के नाम पर व्याप्त बाह्य आडंबरों एवीएम व्यर्थ अनुष्ठानों पर करारा प्रहार किया है । पाठ मे उनका यह रूप मुखर हो उठा है ।
पहले पद मे स्थापित रूढ़ियों के समांतर सच के सीधे साक्षात्कार की प्रस्तवाना है, अर्थात कागद की लेखी की जगह आखिन देखी की प्रतिष्ठा वही दूसरे पद मे ईश्वर और अल्लाह को कही बाहर ढूढने के जगह उसका अपने भीतर ही साक्षात्कार की बात कही गई है ।
मेरा तेरा मनुआ कैसे हक होई रे ।
मैं कहता हुं अखिन देखी , तू कहता कागद की लेखी ।
मैं कहता सुरझवनहारी , तू रख्यो है उरझाई रे ।
मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोई रे।
मैं कहता निर्मोही रहियो , तू जाता है मोहि रे।
जुगन जुगन समुझावत हारा , कही न मानत कोई रेे।
सतगुरु धारा निर्मल बाहें, बामे काया धोई रे।
कहत कबीर सुनो भाई साधो , तब ही वैसा होई रे।
मोको कहा ढूंढे बन्दे , मै तो तेरे पास मे।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद , न काबे कैलाश मे ।
ना तो कौनो क्रिया करम मे नाही जोग बैराग में ।
खोजी होय तो तुरत ही मिलिहौ , पलभर की तलास मे।
कहे कबीर सुनो भाई साधो , सब सांसों की सांस में।
"कबीरदास"
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