ओ नभ में मडराते बादल

 ओ नभ में मंडराते  बादल वे बरसे मत जा ।

मन के होठों पर रस की बिसरी पहचान जगा।

पुरवा की लहरों में सुख की आतुरता उगमा ।

सूखे सुमनौ को हरियाली की आभाष दिखा ।

खींच क्षीचिज पर शीतलता की कज्जल घुमशिखा ।

आज वर्ष की पहली बर्षा का पहला झोका ।

इतने दिन धरती ने प्रखर पिपासा को रोका ।

ओ  नभ  में  मंडराते  बादल वे बरसे मत जा ।




कब से जल बूंदों को बिहल शैल निहार रहे ,

कब से आदत दुग्ध वनों के प्राण पुकार रहे 

मन जलता है, जैसे तृष्णा का क्षण जलता है,

सूखे मूल कागरो का बीरान मचलता है,

आज मधुर स्वप्न में पावस का आकाश भरा ।

गीतों की गूंजों से मर्मर का उल्लास हरा ।




ओ मादक उन्मादक बादल वे - बरसे मत जा ।

जाग उठी मारू मारू में सुख की बशपाकुल आशा ।

इस निदाध से जला प्रकृति का रोम रोम प्यासा ।

थकी अनमनी धूप मांगती है जलमय बहौ ।

डूब गई तम मे नीरा कुल बीहगो की छाहे ।

खेतों - खलियानों , मुंडरो पर , छत पर , घर घर ।

हेर रहे अगणित हम तुमको जल वाले जलघर ।

उमड़ बरसने वाले बादल वे -बरसे मत जा ।




है अनदेखी बान तुम्हारी , तरसाते जग को ।

पुरवा की थपकी दे देकर भरमाते जग को ।

मन की बूंदों से कब तक जीवन को तृप्ति मिले ।

कब तक जलती बालू पर यौवन का फूल खिले ।

तुम बरसो फिर से धरती का तन शीतल हो ले।

तुम बरसो की थकान का मन मिसरी घोले ।

ओ नभ के मडराते बादल वे बरसे मत जा।


                        रामेश्वर शुक्ल अंचल 


Post a Comment