नदी का रास्ता

 नदी को रास्ता किसने दिखाया ?

 सिखाया था उसे किसने 

कि अपनी भावना के वेग को 

उन्मुक्त बहने दे? 

की वह अपने लिए 

खुद खोज लेगी 

सिंधु की गंभीरता 

स्वच्छंद बह कर

इसे हम पूछते आए युगो से, 

और सुनते ही युगो से आ रहे उत्तर नदी का 

मुझे कोई कभी नहीं आया था राह दिखाने 

बनाया मार्ग मैंने अपना ही आप ।

 ढकेला था शीलाओ को,

गिरी निर्भीक कता से मै कई ऊंचे पहाड़ों से, 

बनो में, कंदरा में

 भटकती ,भूलती में 

फुलती उत्साह से प्रत्येक बाधा विघ्नों को 

ठोकर लगा कर ठेल कर ,

बढ़ती गई आगे निरंतर 

एक तट को दूसरे से दूर तक करती  ।

बड़ी संपन्नता के साथ

और अपने दूर तक फैले हुए साम्राज्य के अनुरूप 

गति को मंद कर 

पहुंची जहां सागर खड़ा था 

फेन की माला लिए

 मेरी परीक्षा में ।

 यही इतिवृत्त मेरा 

मार्ग मैंने अपना ही आप बनाया था 

मगर भूमि का दावा 

कि उसने ही बताया था नदी मार्ग ,

उसने ही चलाया था नदी को फिर 

जहां जैसे जिधर चाहा; 

शीलाए सामने कर दी 

जहां वह चाहती थी 

रास्ते बदले  नदी,

जरा बाए मुड़े 

या दाहिने होकर निकल जाए 

स्वयं नीची हुई गति में नदी के 

वेग लाने के लिए 

वही समतल

 जहां चाहा की उसकी चाल धीमी हो।




                                             बालकृष्ण राव             

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